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"हम आजाद है" का नारा बेईमानी सा लगता

साथियों,
           सदियों के लम्बे रस्ते पर एक फलांग पहले ऐसे ही सावन के सुहाने मौसम में पराधीन की नीरसता को तोड़ती एक आवाज गूंजी थी कि "हम आजाद है" और दशकों से फैली थकान भुलाकर सारा मुल्क जश्न मनाने को उठ खड़ा हुआ। हर साल हम इसके पुनः चित्रण के लिये हम सभी जश्न मनाते है मगर हम आजाद है का नारा मुझे बेईमानी-सा लगता है। अपने मन मुताबिक कोई भी कार्य करने के लिये अपने आप को आजाद महसूस करता हूँ लेकिन मंथन करने पर सिर्फ यही निष्कर्ष निकल पाता हूँ कि हमारी वैचारिक मानसिकता आज भी गुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई है। जंजीरों की जकड़न ने हमारी सोच इतनी बोनी कर दी कि जिस वतन का हम नमक खा रहे उसी के साथ नमक हलाली कर रहे है।
मुझे लगता है कि आजादी के जन्मदिन पर औपचारिकताओं की रस्म अदागायी कर हम उन शहीदों को तो याद कर रहे है जिनने वतन के लिये खुद को न्यौछावर कर दिया किन्तु उनके आदर्शों से कुछ सीखने की जहमत न उठाकर यह कसम खा रहे है कि वतन के लिये महापुरुषो को न्यौछावर कर दिया अगर जरूरत पड़ी तो हम भी वतन को खुद के लिये न्यौछावर कर देंगे। अगर यही हाल रहा तो मै दावे के साथ कह सकता हूँ कि वह दिन दूर नहीँ जब भारत को अपनो से ही भारी खतरा होगा।

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