झेलकर वक्त की मार दर्द अपना छुपाते है।
सिर्फ बेटियां नहीं बेटे भी विदा हो जाते है।
नखरे निकाल, मनपसंद खाने की जिद्द वाले,
चुपचाप कैंटीन के खाने से भूख मिटाते है।
गैरों का सहारा, अपनों की मन्द मुस्कान,
बनकर इतिहास यादों में ही खूब लुभाते है।
रिवाज नहीं साहब, सुनहरी जिंदगी के सपने,
तरक्की के रास्ते पर अजनबी बनाते है।
हाल हो कैसा भी , पर सिर्फ अच्छा बताते,
वेबस होकर खुद को खुद में ही समेट लाते है।
पीछे रह गई शरारतें, यादें, मुलाकातें और वो,
खुद को पारस बनाने के लिये सब छोड़ आते है।
सिर्फ बेटियां ही नहीं बेटे भी विदा हो जाते है।
-पारसमणि अग्रवाल
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