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बुआ का साथ, चाचा का खास और दोस्त के पास होने पर टीपू बदलेंगे समीकरण?

देश के सबसे बड़े राज्य के राजनैतिक गलियारों की सियाशी हवा कब अपना रुख मोड़ लें ? कब किसके पाले में गेंद फेंक दें इसका कोई ठिकाना नहीं है। देश की राजनीति की दिशा एवं दिशा तय करने वाली यूपी में वक्त का पहिया गतिमान होकर जैसे-जैसे चुनाव के फांसले को कम कर जाता है ठीक वैसे वैसे ही उत्तर प्रदेश की सियासत तेज होती जा रही हैं और आंकड़ों को प्रभावित करने का काम कर रही है। वर्तमान में सियाशी संग्राम को देखकर राजनैतिक पण्डित भी सटीक आंकड़ों तक अपनी पहुँच बनाने में अक्षम प्रतीत हो रहे है।
विगत दिनों समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को बुआ यानि की बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो बहिन मायावती का साथ मिलने से सियासत ने एक नया मोड़ ले लिया था और नए समीकरणों का सृजन प्रारम्भ हो गया था । यह बात सुर्खियों में विलुप्त की कगार तक नहीं पहुँच पाई थी कि एक समारोह के दौरान टीपू के नाम से प्रसिद्ध अखिलेश यादव को अपने चाचा का साथ मिल जाने की खबर ने सियाशी आग में घी डालकर नई चर्चाओं को जन्म दे दिया है।
हाल ही में हुये गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव में सत्ताधारी पार्टी की हार का श्रेय भी बुआ-भतीजी की इसी जोड़ी को दिया जा रहा है। लेकिन तमाम अटकलों पर राज्यसभा के चुनाव में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने जीत हासिल कर विराम लगाने की कोशिश की गई लेकिन उपचुनाव और राज्यसभा के चुनाव की तुलना करना एकदम नाइंसाफी होगी क्योंकि गोरखपुर और फूलपुर के चुनाव आम जन मानस का फैसला है जबकि राज्यसभा चुनाव का फैसला माननीयों का है इसलिए दोनों चुनाव की तुलना कर आगामी राजनैतिक गोटियों को बिछाना अन्याय संगत होगी। विगत विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के राहुल गाँधी एवं समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव की पक्की यारी को देखकर यह बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये दोस्ती फिर से परवान चढ़ेगी। खैर राजनैतिक गलियारों में यह सवाल अबूझ बन खड़ा है कि क्या बुआ के साथ, चाचा का खास औऱ दोस्त के पास होने के बाद टीपू क्या आगामी चुनाव में समीकरण बदलने में कामयाब होंगे?

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