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जयंती - वर्तमान में भी प्रासंगिक है मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियों में गांव के किरदार

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पूस की रात का किसान - ईदगाह के हामिद जैसे लोगों की आज भी है भरमार
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.                     (पारस मणि )
 हिंदी को हर दिन एक नया रूप एक नई पहचान देने वाले मुंशी प्रेमचंद ने कई दशक पहले जिन मुद्दों पर कलम चलाई थी उसकी प्रासंगिकता आज भी है। मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में झलकने वाला ग्रामीण चित्रण और उनमें समाहित किरदार मौजूदा समय में भी एकदम जीवंत लगते है।
 उन्होंने अपने लेखन में गांव की संस्कृति परंपरा उपेक्षित व साधनहीन लोगों को महत्व दिया। फटे पुराने कपडे पहनने वाले उनकी कहानियों के नायक रहे। उनके लेखन ने गांव की संस्कृति और गरीबी को बेहद ही खूबसूरती से लोगों तक पहुंचाया।
31 जुलाई को जन्मे मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानिया आज भी लोगों से जुडने में और उनके हृदयतल को छू लेने में कामयाब रहती है। प्रेमचंद की रचनाओं में  सामाजिक स्थितियां झलकती हैं।
उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया है।  प्रेमचंद अपनी कहानियों से मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते हैं।
गोदान के होरी धनिया और गोबर मीना दादी के लिए ईद पर चिमटा खरीदता अब्दुल प्रसव-पीडा से कराह रही धनिया लाचार व मदमस्त मदिरा पीते बाप बेटे घीसू और माधव ठाकुर के कुएं पर पानी भरने गई गंगी  पूस की रात में खेत पर कांप रहा हलकू साथ में कूं कूं करता उसका संगी कुत्ता जबरा अपने दो बैलों हीरा और मोती को प्यार से सहलाता झूरी और तमाम ऐसे प्रेमचंद के कहानियों के किरदार है जो उन्हें साहित्य पटल पर आज भी लोकप्रिय बनाये है।
अपनी रचना गबन के द्वारा एक समाज की ऊंच-नीच निर्मला से एक स्त्री को लेकर समाज की रूढ़िवादिता और बूढी काकी के जरिए समाज की निर्ममता को प्रेमचंद ने शब्दों की माला में अलग और रोचक अंदाज में पिरोया।
 उन्होंने हिंदी साहित्य से मध्यमवर्ग का ध्यान हटाकर आम आदमी गरीब देहाती और किसानों को उपन्यासों और कहानियों का विषय बनाया जो अपने आप में क्रांतिकारी कदम था। सम्पन्नता के बीच अभावग्रस्त व उपेक्षित लोगों की संख्या अभी भी बनी हुई है। पूस की रात का बेबस किसान ईदगाह का हामिद नमक के दरोगा का मुंशी वंशीधर कफन के माधव जैसे लोगों की मौजूदा समय में भी भरमार है। शासन की योजनाओं से वंचित लोग अब भी अभावपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे है। 
भले ही प्रेमचंद के कहानियों के किरदार का तकरीबन सौ बरस पहले सृजन किया गया हो लेकिन इस दौर में भी ये बिल्कुल भी फीके और कमजोर नहीं पडे हैं बल्कि और भी सशक्त होकर हमसे सवाल करते हैं कि आखिर इतने बरसों में क्या बदला ?
यह बात जगजाहिर है कि  मुंशी प्रेमचंद हिंदी साहित्य में वास्तविकता लेकर आए। समाज में घटित हो रही घटनाओं को कहानी के रूप में पिरोया। प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में शोषण महिला उत्पीडन दहेज प्रथा और समाज में व्याप्त अन्य कुरीतियों को दर्शाया। भले ही प्रेमचंद के लेखन को उनके जीते जी सिनेमा में स्थान न मिला हो लेकिन उनके जाने के बाद उनकी रचनाओं पर फिल्म और सीरियल बनाये गये जिन्हे मौजदा समय में हम सभी टीवी स्क्रीन पर देख सकते है। प्रेमचंद का गोदान उपन्यास दहेज प्रथा से लेकर जमीदारों द्वारा किए जाने वाले शोषण को उजागर करता है। इस पर 1963 में गोदान नाम से ही फिल्म बनी जिसे त्रिलोक जेटली ने डायरेक्ट किया। गबन कहानी पर भी 1966 में ऋषिकेश मुखर्जी ने फिल्म बनाई थी इसमें संजयदत्त और साधना की जोडी को लोगों ने खूब पसंद किया था। इसके साथ ही निर्देशक सत्यजीत रे ने प्रेमचंद के उपन्यास आधारित फिल्म शतरंज के खिलाडी का निर्माण किया था इसमें शबाना आजमी संजीव कुमार सईद जाफरी जैसे कलाकारों ने अभिनय किया।  डीडी नेशनल के सबसे प्रसिद्ध सीरियल तहरीर भी प्रेमचंद की चुनिंदा कहानियों पर आधारित है। इस सीरियल में प्रेमचंद की गोदान निर्मला ईदगाह ज्योति सवा सेर गेहूं पूस की रात ठाकुर का कुआं नमक का दरोगा हज-ए-अकबर और बूढी काकी कहानी का चित्रण किया गया।
कहानीकार मुंशी प्रेमचंद की कलम समाज में व्याप्त कुरीतियों की बखेडिया उधेर कर आम जन जीवन और ग्रामीण परिवेश को अपनी रचनाओं में स्थान दिया जिनकी प्रसंगिकता वर्तमान में भी है उनके लेखन में प्रगतिशील विचार धारा की झलक स्पष्ट झलकती है उनका कहना रहता था कि दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है वह उसका नहीं उसके दौलत का सम्मान होता है।
मुंशी प्रेमचंद की रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं। युवाओं को इन्हें पढने व समझने की जरूरत है। आधुनिक परिवेश में रूप बदलकर बेमेल विवाह दहेज-प्रथा जातिगत भेदभाव और औद्योगिकीकरण से उपजी समस्याएं  हैं जो प्रेमचंद के साहित्य को जीवंत किये हुये है।

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