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दुर्भाग्यपूर्ण : टीआरपी की दीवानगी में विवेकविहीन हो रही मीडिया



पारसमणि अग्रवाल
मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है। मीडिया समाज को सच से रू ब रू कराने का कार्य करता है। मीडिया समाज का आइना होता है। यह वाक्य सुनने में बहुत ही अच्छे और सकूनदार होते है जो सम्भवतः अब भाषण और अतीत के पन्नो में ही सिमते चले जा रहे है क्योंकि मीडिया और इन वाक्यों को यदि मंथन की परखनली में डालकर देखा जाए तो सिर्फ और सिर्फ यह परिणाम आता प्रतीत होता है कि मौजूदा परिवेश में टीआरपी की दीवानी मीडिया विवेकविहीन होती जा रही है।
मुझे यह अभ्यास होता है कि इस तरह से कठोर शब्दों में मेरा लिखना आत्मघाती भी साबित हो सकता है लेकिन मीडिया का विधार्थी होने के कारण मीडिया विषय से ही परास्नातक होने के वजह मै मीडिया में खुद को ही सना पाता हूँ इसलिए मीडिया पर चिंतन कर प्राप्त निष्कर्ष को देख पीड़ा से हृदय कराह उठता है और दिलों दिमाग में तमाम सवाल मकड़जाल के तरह फैल जाते है जिनके उत्तर पाना बेहद ही कठिन होता है।
आप भी समाज के एक जिम्मेदार नागरिक है आपने भी इस बात की अनुभूति की होगी कि टीआपी की दीवानी मीडिया अपने उसूलों अपने जायज उदेश्यों को भूल विवेकविहीन होती जा रही है। उसका इस दिशा में प्रयास एकदम शून्य सा लगने लगा कि वह समाज के लिए आइना का कार्य करें। समाज को सच से रू-ब- रू कराने के उद्देश्य को भी मीडिया काल कोठरी में फेंककर समाचार को सनसनी बनाने पर ज्यादा मेहनत करती। और उसे इस बात से भी कतई वास्ता नहीं रहता कि लोगों के पास तथ्यपरक समाज पर अनुकूल प्रभाव पड़ने वाले कंटेंट को ज्यादा प्रसारित करें बल्कि उसे इस बात से वास्ता रहता कि ऐसा क्या कटेंट दिखाये जो टीआरपी दिलाने में ब्रह्मअस्त्र का कार्य करें भले ही समाज पर उसका क्या प्रभाव पड़ रहा है इससे उसका कुछ लेना देना नहीं है मुझे लगता है कि यह एक लोकतान्त्रिक देश के लिए बहुत ही ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि जिस देश की मीडिया अपने कर्तव्यपथ से भटक जाता है वह देश भी विकास पथ से भटक जाता है क्योंकि विकास और तरक्की सिर्फ सरकार के द्वारा योजनाओं के खाका खींचने से नहीं होते न ही केवल सरकार के प्रयास से होते बल्कि देश की तरक्की में हर नागरिक का महत्वपूर्ण योगदान होता है और जब हमारे देश की मीडिया युवाओं का देश कहे जाने वाले भारत में कभी प्रेम में भारत से पाकिस्तान गई महिला को विशेष प्रमुखता देते है तो कभी पकिस्तान से भारत आई महिला को। आप अंदाजा लगा सकते है कि ऐसे समाचारों को विशेष प्राथमिकता देना समाज में क्या संदेश प्रेषित कर रहा होगा। लगभग 10 वर्ष से ज्यादा हो गया सक्रियता के साथ मीडिया से जुड़े हुए लेकिन मैंने आजतक ऐसी कोई रिपोर्ट या ऐसा कोई समाचार नहीं देखा जिसमें किसी रिपोर्टर या पत्रकार ने किसी शहीद के घर जाकर देखा हो कि किन हालातों में उन घरों का चूला जल रहा है। हा इतना जरूर है कि जवान के शहीद होने के कुछ दिनों तक नेताओं जिम्मेदारो पत्रकारों का आवागमन रहता है लेकिन उसके बाद कोई सुध नहीं लेता। आखिर क्यों?
ऐसे ही देश में तमाम अनछुए मुद्दे है जिन्हे प्रमुखता के साथ राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए लेकिन टीआरपी की भूखी मीडिया के लिए ऐसे मुद्दे अछूत है और प्रेम इत्यादि जैसे बेतुके मुद्दे प्रमुखता के साथ राष्ट्रीय मुद्दे बना दिए जाते क्योंकि टीआरपी की भूख ने उसूलों को भी भुला दिया है।
मानता हूँ कि वर्तमान युग अर्थ का है और सृष्टि का नियम है परिवर्तन इसलिए मीडिया का व्यापारीकरण होना लाजमी है लेकिन सिर्फ टीआरपी की हवस में उसूल उद्देश्य और तथ्यपरक अनुशासित पत्रकारिता को भूल जाना मुझे दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक लग रहा। क्योंकि मैंने कंही पढ़ा है कि समाज वही देखता है जो मीडिया दिखाती है। समाज वही समझता है जो मीडिया समझाती है। समाज वही बोलता है जो मीडिया बुलवाती है। इसके प्रत्यक्ष उदाहरण अरविन्द केजरीवाल है जिन्हें प्रथम बार दिल्ली का ताज पहनाने में मीडिया का ही महत्वपूर्ण योगदान रहा। मीडिया से जुड़े लोगों को चिंतन करना चाहिए कि मीडिया के रूप में समाज की जिम्मेदारी की बागडोर संभाले समाज को वह क्या परोस रहे है?

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