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काश! सुध ली होती............


हर तरफ आजादी का जश्न है पर यह जश्न अधूरा सा लग रहा है। आजादी के साढ़े सात दशक से ज्यादा वर्ष होने पर आजादी के अमृत महोत्सव, हर घर तिरंगा, मेरी माटी- मेरा देश जैसे कार्यक्रमो से देश भक्ति के रंग में रंगकर देश उत्साह और उमंग से परिपूर्ण है। विगत कई दिनों से समाचार पत्र/पत्रिका आजादी के अमृत महोत्सव इत्यादि के तहत विभिन्न स्तरों पर विभिन्न कार्यक्रमों की कवरेज से सरोबार मिले जो स्पष्ट बयां कर रहा है कि हर कोई देश भक्ति के रंगों में रंगा है चाहे नन्हें मुन्ने बच्चे हो या फिर किशोर हो चाहे युवा हो या फिर बुजुर्ग हो। मन भी देश प्रेम की धारा में हिलोरे मारकर प्रफुल्लित है अगर एक बात कांटे की तरह जहन में चुभ मुझे अपने जिंदगी से जुड़े एक संस्मरण की याद दिलाते हुये सवालों का मकड़जाल बुन रही है कि आजादी के उपलक्ष्य में हर तबके के साथ जश्न मनाया जा रहा विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम किए जा रहे नेताओं जनप्रतिनिधि और जिम्मेदारों द्वारा देश प्रेम की बड़ी बड़ी बातें की जा रही है। इन सब के बीच काश! उन परिवारों की भी सुध ले ली जाती जिनके परिवार के वारिश देश के खातिर शहीद हो गये। काश! सुध ले ली जाती उजड़ी मांग वाली उन बहिनों की भी जिनका सुहाग देश के लिए समर्पित हो गया। काश! सुध ले जाती उन माँ ओं की भी जिनका लाल भारत माँ की रक्षा करते करते हमेशा के लिए सो गया.....
विगत कई दिनों से मैंने तमाम समाचार पत्र पत्रिकाओं में इस उम्मीद के साथ अपने इस दर्द का मरहम तलाशने की कोशिश की कि किसी ने तो सुध ली गई। पर तमाम कोशिशों के वावजूद हाथ लगी तो सिर्फ निराशा... एक भी समाचार ऐसा नहीं मिला जिसमें लिखा हो कि फलाने नेता जी फलाने मंत्री जी या फलाने सांसद जी या फलाने विधायक जी या कोई जनप्रतिनिधि अपने कार्यक्षेत्र के ऐसे परिवार से मिले जिस परिवार का लाल देश की आन बान शान के लिए कुर्बान हो गया। चलो ये भी मान लेते है कि हमारे नेता जी तो सफेदी चमकाने में व्यस्त रहने के कारण समय नहीं निकाल पाते होंगे पर दुर्भाग्य इस बात का है कि इस दिशा में समाजसेवा का चोला ओढे न ही किसी संगठन ने कदम उठाने की जहमत उठाई न ही खुद को समाजसेवी कहने वाले किसी भईया ने।
सूबे की राजधानी लखनऊ में आज से करीब चार वर्ष पूर्व पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान मुझे अपने कॉलेज के माध्यम से एक शहीद के परिवार से मिलने समझने और बात करने का अवसर मिला था क्योंकि कॉलेज द्वारा उन शहीद पर डोक्यूमेंट्री फिल्म बनाने का टास्क मिला था। इस दौरान उनके परिवार से बात करते हुये इस बात का अहसास हुआ था कि उनके परिवार के लाल के शहीद होने के पंद्रह दिन तक तो तमाम, अधिकारी, नेता जनप्रतिनिधि, समाजसेवी कई संगठन आदि तमाम लोग पहुंचे लेकिन उसके बाद किसी ने उस परिवार की कोई सुध नहीं ली तबसे न ही कोई अधिकारी पहुंचा न ही कोई नेता पहुंचा और न ही कोई समाजसेवी। यह बात मन में खटक गई और मन में ये जानने की लालशा उत्पन्न हो गई कि वाकई अन्य शहीदों के परिवार के साथ भी क्या यही हाल है अपने मित्रों की मदद से तमाम खोज बीन के बाद जब इस जवाब के उत्तर तक पहुँचे तो अधिकांश परिवारों की स्थिति यही सामने निकल कर आई।
माफ कीजियेगा पर ऐसा अहसास होने लगा कि किसी जवान के शहीद होने पर शहीद होने के कुछ दिन तक हमारे जिम्मेदार सिर्फ मीडिया की सुर्खियां बनने जाते यदि वास्तव में उनकी संवेदनाएं शहीद परिवार के साथ थी तो फिर कभी शहीद के परिवारों से मिलने कोई क्यो नहीं गया।
करोड़ो रुपयों के बजट से आजादी के अमृत महोत्सव के तहत विभिन्न कार्यक्रमों को आयोजित किया जा रहा। काश इन्ही कार्यक्रमों के बीच एक चरण यह भी जोड दिया जाता तो कल्पना कीजिये तस्वीर और कितनी खूबसूरत होती कि अपने अपने कार्यक्षेत्र में मंत्री सांसद विधायक और जनप्रतिनिधि शहीद परिवारों से मिलकर उनको सम्मानित करेंगे। ऐसा होता तो ऐसी लोकतंत्र की सच्ची तस्वीर हर कोई निहार रहा होता।
मेरी माननीय प्रधानमंत्री जी से यह गुजारिश है कि आजादी के अमृत महोत्सव के तहत यह चरण भी जोड़ा जाए जिसमें हमारे जिम्मेदार हमारे जनप्रतिनिधि हमारे अधिकारी शहीदों के परिवार से भी मिल आजादी का जश्न मनाएं तभी यह सच्चे मायने में आजादी का उत्सव होगा।

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