पारसमणि अग्रवाल
"इश्क़ उम्र का मोहताज नहीं होता... लेकिन क्या रिश्ता भी नहीं होता? क्या प्यार अब इतना 'बोल्ड' हो गया है कि वह मर्यादा की सीमा लांघने में भी संकोच नहीं करता? आज हम आपको ले चलेंगे एक ऐसे रोमांटिक मगर हैरान कर देने वाले सफर पर... जहां बूढ़ी आंखों में इश्क़ फिर से जवान हो रहा है, और जवान रिश्ते… वो अब शर्मसार!" आज के दौर में, जब सास दामाद के साथ भाग रही है …समधिन समधी संग घर बसा रही है। कभी मोहब्बत एक गुलाब थी,
आजकल वो ‘नीला ड्रम’ बन चुकी है। जहां इश्क़ का इज़हार अब ज़हर से, और वफ़ा की परिभाषा सुपारी से तय होती है। यह दौर है 21वीं सदी का – तरक्की का, तेज़ी का, और शायद 'तबाही' का। .आइये देखते है पूरी रिपोर्ट -
उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ से एक ऐसी कहानी सामने आई, जिसने पूरे सोशल मीडिया को हिला दिया। एक सास अपने दामाद के साथ घर से फरार हो गई। पुलिस की काउंसलिंग, गांववालों की पंचायत – कुछ भी इस मोहब्बत की आग को बुझा न सका। वो अड़ी रही, और कहती रही कि 'मैं अब उसी के साथ रहूंगी। दमाद के साथ ही नए ससुराल जाऊंगी। "ये एक मामला नहीं है ऐसे किस्सों की लंबी फेहरिस्त है ,जो समाज के हर कोने से निकल रही है ऐसा ही एक मामला बदांयू का है जहां सास-बहू की नोकझोंक से ज़्यादा चर्चित हो गई 'समधी-समधिन' की मोहब्बत। दोनों अपना-अपना परिवार छोड़कर भाग गए।
और परिवार वालो को सदमे में छोड़ गए। ये नया इंडिया है, साहब…यहां अब मोहब्बत रिश्ते नहीं देखती, बस दिल की चलती है, फिर चाहे वो समधी हो, दामाद हो। यूपी जैसा एक मामला राजस्थान में भी मिला। राजस्थान के सिरोही जिले में जब 40 साल की महिला अपने 27 साल के दामाद के साथ भागी,
तो पुलिस भी हैरान रह गई। जांच में पता चला दामाद की शादी बेटी से सिर्फ एक बहाना थी असल इरादा सास को अपना बनाना था। आजकल पत्नियां
शादी में मिले पैसों से सुपारी देती हैं…चूहा मार दवा को चाय में मिलाती हैं…नीले ड्रम में लाश छुपाती हैं…और वजह होती है 'इश्क़!' कभी किसी दूसरे से,
कभी किसी अजूबे से। अब प्यार की परिभाषा बदल चुकी है। लेकिन हर मोहब्बत सिर्फ सनसनी नहीं होती,कभी-कभी ये एकाकी जीवन में रोशनी भी बनती है।
जैसे त्रिशूर (केरल) के वृद्धाश्रम में मिले 67 वर्षीय कोचानियान और 65 वर्षीय लक्ष्मी। 30 साल पुराना साथ अब सात फेरे बन गया। ऐसा ही कुछ हुआ महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में जंहा 75 वर्षीय बाबूराव पाटिल और 70 वर्षीय अनुसया शिंदे ने वृद्धाश्रम में एक-दूसरे से प्रेम किया और विवाह किया। दोनों ने अपने जीवन के अंतिम चरण में साथी पाया। बेशक कुछ प्रेम कहानियां प्रेरणा देती हैं, लेकिन सवाल यंहा ये उठता है कि क्या ये बदलाव मोहब्बत की जीत है?
या संस्कारों की हार? क्या हर रिश्ता अब 'परिभाषा' से बाहर निकलेगा? सास दामाद से प्यार करेगी? समधिन समधी से घर बसाएगी? और फिर… इसे समाज 'स्वीकार' करेगा? लेकिन क्या हर मोहब्बत मर्यादा से ऊपर हो सकती है? एक ज़माना था जब मोहब्बत के लिए लोग जान दे देते थे…आज के दौर में लोग जान ले लेते हैं। कभी इश्क़ ताजमहल बनाता था…अब अदालत की चार्जशीट बन गया है। हमारे संस्कार कहते थे कि माता-पिता भगवान होते हैं’,
रिश्ते सम्मान होते हैं’ लेकिन अब एक दौर ऐसा है जहां रिश्तों का आधार सिर्फ 'जुनून' है। चाहे वो सही हो या घातक। अब उम्र नहीं देखी जाती, न मर्यादा, न समाज…बस इश्क़ देखा जाता है। क्या ये मोहब्बत की क्रांति है या सामाजिक पतन? क्या ये 'अधिकार' है? क्या हर अकेलापन इश्क़ में बदल सकता है?
या हमें फिर से 'सीमाएं' तय करनी होंगी? कभी मोहब्बत मर्यादा में थी, अब बगावत में है। बूढ़ा इश्क़ बेशक गहरा होता है…लेकिन जब वो रिश्तों की कब्र पर खड़ा हो…तो क्या वो मोहब्बत कहलाएगा या खुदगर्ज़ी? सोचिए…क्योंकि समाज के आईने में अब मोहब्बत की तस्वीर बदल चुकी है। क्योंकि ये सिर्फ खबर नहीं…ये एक आइना है…जो दिखाता है कि हम कहां से चले थे…और आज कहां आ गए हैं ?
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