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मौत की सिफारिश - मन की बात


बदलते समय के साथ बदलते इक्कसवीं सदी के भारत ने मन में सवालों का तूफान उठाकर अपनी लेखनी को समय के साथ इस आशा और विश्वास के साथ चलाने को मजबूर कर दिया कि आधुनिक चकाचौन्ध की पट्टी अवाम के आँखों से हटाकर मेरी लेखनी उन्हें सचेत करने का काम करेगी।
युवा देश कहलाने वाले भारत के राजनैतिक दलदल में युवाओं का ही शोषण चरम सीमा पर है। राजनीति की स्वार्थनीति में बदलती परिभाषा में युवाओं को मोहरा बनाकर सत्ता हथियाने का घिनोना काम किया जा रहा है।जो दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है। स्वार्थ के दैत्य ने हमारे जिम्मेदारों को इस कदर घेर रखा है कि वह लाभ को देखते हुये युवाओं को मीठी मीठी बातों के अपने मायाजाल में फंसाकर कानून का मजाक बनाने हेतु उत्साहवर्धन करने में लगे हुये है। युवाओं के बारे में हमारे विचारकों ने भी कहा है कि "यदि युवा शब्द को उल्टा कर दिया जाये तो वायु शब्द का निर्माण होता है और जब वायु बेग में आती है तो तूफ़ान आ जाता है।" इसी तूफानी रूपी युवा शक्ति के सहारे हमारे राजनेता अपनी नोका पार लगाते है। आधुनिकता की चकाचौन्ध में हमारे नेता ऐसे अन्धे हो गए कि वह ये भूल रहे है कि पार्टी के नेतृत्व को अपने पास युवाओं की लम्बी फौज दिखाने और अपने जिन्दाबाद के नारे लगवाने के लिये वह मासूम युवाओं की जिन्दगी से खेल रहे है। नियम आम जनता को सुरक्षा व अन्य प्रकार के लाभ देने के लिये बनाये जाते है। हास्यपद बात तो यह है कि हमारे नेता ही प्रजातन्त्र के मन्दिरों में बैठकर इन नियमो का सृजन करते है और हमारे ये ही नेता मन्दिरों से बाहर बैठकर अपने बनाये हुये नियमो का खण्डन कर भारतीय लोकतंत्र के साथ मै डाल-डाल, तू पात-पात का खेल खेलने में लगे हुये है।
अब आवश्यकता इस पर मंथन करने की है कि क्या फोकस दिखा नियमो को तोड़कर अपनी जिंदगी से खिलवाड़ करना है या फिर नियमो का पालन कर सुरक्षित जीवन का निर्वाहन करना है। आपकी टीका-टिप्पणियो के इंतजार में आपका.........

पारसमणि अग्रवाल

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