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भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा): जन्म और विकास - दिनकर कुमार

आज से कोई छप्पन-सत्तावन साल पहले १९४३ में ’’भारतीय जननाट्य संघ’’ (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन’’-इप्टा) का जन्म देश की आजादी की लड़ाई और विश्वव्यापी फासिस्ट विरोधी आंदोलन के गर्भ से हुआ था। भारतीय जननाट्य संघ ने अपनी स्थापना के वर्ष से १९६० के बीच सैंकड़ों नाटकों एवं एकांकियों का प्रदर्शन किया है। ’’ये किसका खून है’’(अली सरदार जाफरी)ः ’’आज का सवाल’’, ’’आधा सेर चावल’’, ’’राजा जी दिल बैठा जाए’’, ’’घायल पंजाब’’, ’’लपटों के बीच’’, ’’प्लानिंग’’, ’’पहेली’’(राजेंद्र रघुवंशी), ’’कानपुर के हत्यारे’’, ’’जमींदार कुलबोरन सिंह’’, ’’सीता का जन्म’’, ’’तुलसीदास’’ (डॉ. रामविलास शर्मा), ’’हिमालय’’, ’’आखिरी धब्बा’’ (डॉ. रांगेय राघव), ’’यह अमृत है’’, ’’जुबेदा’’, ’’मैं कौन हूँ’’ (ख्वाजा अहमद अब्बास), ’’जादू की कुर्सी’’, ’’मशाल’’ (बलराज साहनी), ’’बेकारी’’, ’’संघर्ष’’, ’’किसान’’ (शील), ’’तूफान से पहले’’ (उपेंद्र नाथ ’अश्क’), ’’पीर अली’’ (लक्ष्मी नारायण, पटना, इप्टा), ’’धनी बांके’’, ’’घर’’ (कानपुर, इप्टा) आदि नाटक बार-बार मंचित हुए थे। इनमें से ’’जादू की कुर्सी’’, ’’मैं कौन हूँ’’, ’’जुबेदा’’ और ’’किसान’’ अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर खेले और सराहे गए। बंगला में ’’नवरत्न’’, ’’जबानबन्दी’’, ’’नवान्न’’ (विजन भट्टाचार्य), तेलगू में ’’हिटलर प्रभावम्’’, ’’मां-भूमि’’, मलयालम में ’’तुमने मुझे कम्युनिस्ट बनाया’’ (तोप्पील भाषी), मराठी में ’’दादा’’ (टी. सरमालकर), गुजराती में ’’अलबेली’’ नाटक खेले गए।

इप्टा आंदोलन ने लोककला रूपों को पुनर्जीवित और पुनर्स्थापित किया। एक तरह से कहा जाए तो इप्टा ने हमारे संपूर्ण रंग-संस्कार को लोधर्मिता से जोड़ा। इप्टा के नाटककारों ने अपने-अपने प्रदेशों की लोकनाट्य शैलियों में नाटक लिखे। जात्रा, नौटंकी, तमाशा, पवाड़ा, तेरुकुत्तू, बुर्राकथा, माच, नाचा, ख्याल एवं भवाई आदि लोक नाट्य शैलियों में तत्कालीन सामाजिक संघर्षों को अभिव्यक्ति मिली। रेलवे हड़ताल, किसान-आंदोलन एवं मजदूरों की हड़ताल पर तत्काल नाटक रचे और खेले जाते थे। इप्टा के ज्यादातर नाट्य प्रदर्शन शहरों या गाँवों में हजारों की भीड़ के सामने किसी खुले मैदान में होते थे। इप्टा के इन प्रदर्शनों ने साधारण जनसमुदाय को राजनीतिक रूप से शिक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।

इस तरह इप्टा आंदोलन ने रंग-कला की भरतीय दुनिया में एक नई क्रांति की। इससे पूर्व सैंकड़ों सालों की पराधीनता एवं औपनिवेशिक गुलामी के कारण भारतीय रंग-बिरादी की दुनिया अत्यंत संकुचित हो चुकी थी। शास्त्रीय रंग-पद्धति रूढ़िबद्ध होकर बेजार स्थिति में पड़ी थी। लोक नाट्य शैलियां भी अधिकांशतः फूहड़ मनोरंजन का साधन बनी हुई थीं। पारसी रंग-मंडलियों को अपने पेशे से मतलब था। 19वीं शताब्दी के साठ, सत्तर एवं अस्सी के दशकों में भरतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी रंग-क्षेत्र में एक नया परिवर्तन ला खड़ा किया था। उन्होंने हिंदी रंगचर्याा को एक विशिष्ट जातीय चेतना से जोड़ा था। इसे लोकोन्मुख बनाकर एक ठोस सामाजिक आधार प्रदान किया था। एक लम्बे समयान्तराल के बाद इप्टा आन्दोलन के दौरान नाटक और रंग-कला की खोई हुई सामाजिकता वापस लौटी थी। यह इप्टा आन्दोलन की एक महान उपलब्धि थी।

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