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स्वाइन फ्लू के समान है पड़े लिखे गधा


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लेखक- पारसमणि अग्रवाल
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अरे, आप तो हैडिंग पढ़कर एकदम चौक गये और अपने को सोचने को मजबूर कर दिया कि क्या हम गलत तो नहीं पड़ रहे?
आपकी चिन्ता मुझसे देखी नहीं जा सकती है चलो मै ही बता देता हूँ कि आप सही है ज़नाब, जी स्वाइन फ्लू के समान है पढे लिखे गधा।
अरे अरे फिर सोचने लगे आप, कितना सोचते है आप ?
सोचिये मत मै ही बता देता हूँ कि आप सही सोच रहे है कि कहीँ गधा भी पढे लिखे होते है? ये तो बिल्कुल उल्टा है आपके मन में चल रहा सवाल तो जायज़ है लेकिन मुझे लगता है कि आप अभी भी अतीत में जीवन जी रहे है। टिक-टिक करती घड़ी की सुई के साथ बहुत कुछ बदलते हुए आगे बढ़ता है। बदलते हुए समय ने देश को इतना बदल दिया कि वर्तमान समय में पढे लिखे गधा देश के लिए एक बीमारी के समान साबित हो रहे है। ये सरकारी दफ्तरों, साइबर कैफ़े, रोज़गार केंद्र के चक्कर काटते व समाचार पत्र/पत्रिकाओं में छपे रोज़गार परक विज्ञापन को निहारते देखे जा सकते है।
आज जब बात उठी ही है तो मै इनकी उत्पत्ति के बारे में भी बताये देता हूँ कुछ समय पूर्व हमारा समाज शिक्षा के महत्त्व को समझने लगा समाज की इस समझ से 2 परिणाम निकले पहला सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक।
पहला सकारात्मक परिणाम यह निकला कि हमारा समाज शिक्षित होने के लिए प्रयासरत हुआ और हमारा समाज विकसित होने लगा है। दूसरा नकारात्मक परिणाम यह निकला कि हमारा समाज शिक्षित होने के लिए नहीं बल्कि शिक्षा अपनी स्वार्थपूर्ति हेतू ग्रहण करने लगे जबकि हमारे महापुरुषो ने कहा है कि शिक्षा शिक्षित होने के लिए होनी चाहिए न कि स्वार्थ के लिए। लेकिन इस स्वार्थ का चस्का लोगों को ऐसा लगा कि हमारे समाज ने सरकारी नोकरो को सर्वश्रेष्ठ होने का प्रमाण पत्र दे दिया साथ ही इस बात पर गौर फरमाने तक की जहमत नहीं उठाई कि कहीँ ऐसा तो नहीं है जिस सरकारी पद पर विराजमान होकर वह अपने आप को सर्वश्रेष्ठ साबित कर रहा क्या वाकई वह उस लायक था या फिर गलत तरीकों से सफलता की उस मंजिल तक पहुँचा है। कुछ लोग समाज की इस स्वार्थवादी परम्परा को नजर अंदाज करते हुए शिक्षा ग्रहण कर शिक्षित होने के लिए प्रयासरत रहते है लेकिन दुर्भाग्य और बदकिस्मती से ये शिक्षित लोग उस मंजिल को प्राप्त नहीं कर पाते है जिसके वह असली हक़दार है।
इसी मौका का फायदा उठाते हुए धीरे धीरे शिक्षा का बाजारीकरण प्रारम्भ हो गया इसने कम समय में ही अपनी तरक्की की नई इबारत लिख ली कुकरमुत्तो की तरह अब शैक्षिक संस्थान दिखाई देने लगे है जो लोक लुभावनी सुविधाये दिखाकर शिक्षार्थियों को अपनी और आकर्षित करने का काम करते है समाज में सरकारी नोकरो को मिलता विशेष सम्मान ने शिक्षा के मंदिरों को झकझोर कर रख दिया वर्तमान में अधिकांश प्राइवेट शिक्षा संस्थानो ने पैसा लाओ डिग्री ले जाओ की नीति पर काम प्रारम्भ कर दिया और एक बड़ा अशिक्षित वर्ग इन डिग्रीओ को लेकर अपने को सरकारी नोकर बनने के लायक बताने का काम कर शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में दिन-प्रतिदिन इजाफा करने का काम कर रहे है।
आप तो समझदार है अब तो आप समझ ही गए होंगे कि शिक्षित गधा आधुनिक परिवेश में है या नहीं ?
आप ही बताइये कि क्या विना पढे लिखे होते हुए भी गलत तरीकों से शिक्षित गधा जैसी सम्मानीय उपाधि से अलंकृत होने का हक नहीं है मुझे लगता है कि इन्हें शिक्षित गधा की उपाधि से जरूर सम्मानित करना चाहिए क्योकि ये शिक्षित गधा समाज के लिए स्वाइन फ्लू की बीमारी के तरह हो गए है जिनसे निजात पाना हमारे समाज के लिये लोहे के चने चबाने जैसा हो गया है। समाज में भारी संख्या में शिक्षित गधो की उपस्थिति  का अंदाजा शिक्षक विधायक के चुनाव से लगाया जा सकता है। ग़ौरतलब हो कि शिक्षक विधायक के चुनाव में स्नातक पास ही मतदाता मतदान करते है शिक्षित मतदाताओं के मतदान करने के बावजूद हजारों की संख्या में अमान्य मत निकलना इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि इस मतदान में शिक्षित मतदाताओं के साथ फर्जी शिक्षित मतदाताओं यानि की शिक्षित गधो ने भी मतदान किया है
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आपकी टीका-टिप्पणी के इन्तजार में
पारसमणि अग्रवाल
7524820277
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इस आलेख में लेखक के अपने विचार है इसके माध्यम से किसी को भी ठेस पहुचाने का उद्देश्य नहीं है