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सोचने का नजरिया बदलती प्रतीत होती है "मेकिंग लगान"

फ़िल्म का नाम सुनते ही हंसी मजाक रोमांस, हीरो हीरोइन इनसब का चित्रण मन में होने लगता है लेकिन एक फ़िल्म को लिखने से लेकर पर्दे पर आने तक कितनों लोगों की मेहनत लगी होती है? कितने लोग अपने घर परिवार को छोड़ उस फिल्म के प्रति महीनों समर्पित हो जाते है शायद इस सब की कल्पना आपके बस की बात नहीं है।
ऑस्कर में नामांकित फ़िल्म "लगान"  की मेकिंग दिलों दिमाग को झकझोर कर रख जाती है और याद दिला जाती है बचपन में बताई जाने वाली उस घटना की जिसमें एक नन्ही सी चींटी दाना लेकर ऊंचाई पर चढ़ने की कोशिश करती है लेकिन वो फिसल जाती है यह सिलसिला कई बार चलता है और आखिरकार वह दाना लेकर चढ़ाई करने में कामयाब हो जाती है। ठीक इसी प्रकार सम्भवतः फ़िल्म को सृजित करते वक्त शायद ही लेखक ने कल्पना की होगी कि उसकी फ़िल्म विभिन्न पुरुस्कारों को हासिल करते हुए आस्कर तक पहुँच जाएगी क्योंकि लेखक को अपनी फिल्म के लिए शुरुआती दौर में प्रड्यूसर तक नहीं मिल रहा था। क्रिकेट आदि के सीन पता चलने के बाद कहानी को सुनने से इंकार कर दिया था लेखक द्वारा लगभग आधा दर्जन बाद कहानी सुनाने के प्रयास के बाद जब लेखक ने एक बार कहानी सुन लेने की जिद्द आमिर खान से की तो उन्हें हामी यह कहते हुए भर दी कि मैं पहले ही बोल रहा हूँ मेरे तरफ से न है। लेकिन जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती गई वैसे वैसे ही आमिर कहानी में खोते गए और कहानी के प्रति उनका नजरिया बदलता गया । फिर उन्होंने अपने परिवार के साथ बैठकर एक बार पुनः कहानी को सुना कहानी को सुन जो भाव वह महसूस कर रहे थे वही उन्हें अपनी परिवारजनों के चेहरे पर देखने को मिले। कहानी अंतिम पड़ाव पर पहुँचने के बाद सबने फ़िल्म के लिए अपनी स्वीकृति दे दी । और आखिरकार लेखक की मेहनत सफलता के रंग में रंगती दिखाई दी। वीआईपी रहन सहन से शूटिंग के लिए एक छोटे से गांव में 6 महीना गुजरना कितना मुश्किल भरा होगा इसकी कल्पना बेहद ही जटिल है।  बेहद मुश्किलों एवं कठिनाइयों से जूझते हुए फ़िल्म पर्दे पर आने की खूबसूरती के साथ तैयार हुई।
अगर लेखक शुरुआती दौर में ही हार मान लेता तो शायद आज लगान हम सब के बीच नहीं होती मेकिंग लगान ये सिखाकर जाती है कि कुछ भी असम्भव नहीं है बस प्रयास सच्चा और अच्छा होना चाहिए।

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