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आपके आसपास घटती दिखाई पड़ेगी आरव मिश्रा की कहानियां


कागज के जिगर पर कलम की नोंक से अपनी सम्वेदनाओं को बखूबी तरीके से उतार कर पाठकों के दिलों तक पहुँचने वाले युवा लेखक आरव मिश्रा की नई किताब हम सब के बीच आ चुकी है। अपनी किताब के बारे में आरव मिश्रा अपनी कलम से क्या कहते है आइये पढ़ते हैं-

                      कोई भी रचनाकार प्रथमत: रचनाकार ही नहीं होता वरन अनुभव और शिक्षा की एक लम्बी श्रृंखला व्यक्ति में बहुमुखी प्रतिभा को सुनियोजित कर बहुआयमी व्यक्तित्व का निर्माण करती है। इस दीर्घकालिक यात्रा के मूल में कुछ कारण अवश्य निहित रहते हैं, जो आगे का पथ प्रदर्शित करते हैं। 
                                     हम सभी कोरोना महामारी के रूप में एक युगांत  परिवर्तनकारी घटना के साक्षी बने । इस महामारी से बचाव के लिए लॉकडाउन से वंधे पांव  और घर की चाहरदीवारी में कैद मन यदि अकुलित हो उठे तो यह विस्मय की बात न होगी। परन्तु यही एकाग्रता कभी- कभी खुद को तराश कर एक नवीन अवसर भी देती है। अकेलेपन और एकांतता का समाधान उद्विग्नता , अधीरता, विहलता नहीं है अपितु यह वह स्वर्णिम समय है जब हम अपनी क्षमताओं को पहचानने  और पूर्ण ऊर्जा शक्ति से किसी सकारात्मक कार्य की ओर उन्मुख हों। 
                                     जीवन की इस एकाग्रता ने संसार को न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के श्रेष्ठ सिद्धांत से परिचित कराया है। मैं अपनी तुलना न्यूटन जैसे महान वैज्ञानिक से तो नहीं करता परन्तु इन समस्त कहानियों के संग्रहण में एकांतता का अवश्य ही बड़ा हाथ मानता हूँ। 
                      एक सच्चा समर्पित रचनाकार अंतत: देश- समाज से तटस्थ नहीं रहता, वह तो उसकी सभी अच्छाइयों-बुराईयों, उसकी तमाम रूढ़िवादी परम्पराओं का चाहे- अनचाहे रूप में स्वयं भी भुक्तभोगी होता है। यह भुक्तभोगिता की स्वमुक्ति के लिए ही प्रयास नहीं अपितु संसार में व्याप्त आर्थिक वैषम्यता, पराधीनता, अन्याय, उत्पीड़न, शोषण , असमानता के लिए दीर्घकाल से चले आ रहे संघर्ष के प्रति जद्दोजहद है। जिसे २१ वीं सदी की दुनिया में भी नकार नहीं जा सकता। 
                               “कट्टहा ब्राह्मण” मेरी पहली किताब है। इसकी कहानियाँ समाज में व्यवहारिकता से कोसों  दूर न होकर हमारे आस –पास, परिवार में हर जगह घटती दिखाई पड़ती हैं। कानूनी जकड़ के फलस्वरूप आज भी अस्पृश्यता , समलैंगिकता, थर्ड जेन्डर, बाल दुर्व्यवहार जैसी भयावह कुरीतियां तथा रूढ़िवादी परम्पराएं  कानूनी विधि को हासिए पर ला खड़ा कर देती है। सत्य को आच्छादित न करते हुए आज भी समाज  इनका दंश झेल रहा है।
लेखक की रचना चाहे कितनी भी सरस, सरल और सहज ही क्यों न हो यदि वह पाठकों के मन को झूमने पर मजबूर नहीं कर देती, वाह- वाही के उद्घोष नहीं लगवा देती, तब तक अधूरी ही रहती है। स्वयं तुलसीदास ने भी कहा है कि पाठकों की प्रशंसा के बिना कोई भी रचना फीकी ही रहती है –
                निज कवित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका।।  
                                      (रामचरितमानस -01/07/11)
आखिर में अपनी इस धरोहर को आप सभी पाठकों के हाथों में इस आशा से सौंपता हूँ कि मेरे पहले प्रयास में हुई गलतियों से मुझे अवश्य अवगत कराकर अपना स्नेहिल साथ और आशीर्वाद सदैव बनाये रखेंगे।
https://books.google.co.in/books/about/Kattaha_Brahman.html?id=mYf_DwAAQBAJ&redir_esc=y

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