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कहानी :- रेड लाइट एरिया


‘‘ खाला तुमसे भी मिलने नहीं आ सकता क्या ?’’


मासूमिसत भरी यह बोली थी वरदान की, जो अपने सपनों को लिये दिल्ली पहुचा था । शहर से अंजान था, बहुत ही नादान था घूमते-घामते वह रेड लाइट एरिया जा पहुॅचा तो एक वृद्ध वैश्या सरोज की नजर उस पर गई सरोज ने उसकी नसमझी को पढ़ते हुये कहा कि ‘‘ तुम इधर क्या कर रहे हो ? इधर से जल्दी निकल जाओ, पुलिस कभी भी छापा मार सकती है।’’ उसकी बात सुन वरदान झिझक भरी आवाज में मिले उत्तर ने सरोज को झकझोर कर रख दिया और अपनापन का सुखद अहसास करा दिया क्योंकि सरोज के लिये रिश्ते नाते ठीक उसी प्रकार थे जिस प्रकार से आसमान से तारे तोड़ना।


वरदान की बात सुन सरोज भावुकता के साथ बोली ‘‘ बेटा, मेरे होते हुये तुम्हें कोई हाथ तक नहीं लगा सकता। तुम तक पहुॅचने से पहले उसे मुझसे जुझना पड़ेगा।’’ वह वरदान को एक ढाबे पर ले गई। वरदान अन्दर ही अन्दर डरा हुआ था क्योकि अब तक उसे अहसास हो चुका था कि उसका वहाॅ रहना किसी भी खतरे से खाली नहीं है। लेकिन जिज्ञासु स्वभाव, उसके मन में तमाम सवालों को जन्म देने का काम कर रहा था।


चन्द ही पलों की मुलाकात ने सरोज और वरदान के बीच मानों ऐसा रिश्ता कायम कर दिया जैसे दोनों वर्षों से एक दूसरे को जानते हो। दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला जारी हो गया था वरदान इसी बीच अपने सवालों का उत्तर भी तलाश रहा था।


सरोज ने बताया कि ‘‘ जब वह 6 वर्ष की थी तब उनके माता-पिता का देहान्त हो गया था कुछ सालों तक एक पहचान के चाचा के यहाॅ मैं रही। जब मैनें युवा अवस्था में दस्तक दी तो मुझे नौकरी करने की जरूरत महसूस हुई क्योंकि मेरी एक छोटी बहिन और छेटा भाई भी था मुझे उनके भविष्य को संवारना था। मुझे अपने माता-पिता का सपना पूरा करना था। लम्बी भागदौड़ के बाद आखिरकार मुझे नौकरी मिल ही गई। शुरूआत में मानो ऐसा लगने लगा था कि जैसे मेरे पंखों को उड़ान मिलने लगी हो लेकिन आॅफिस में कुछ वक्त ही बीत था कि मेरे बाॅस की बुरी नजर मुझ पर पड़ने लगी और मेरे साथ शारीरिक शोषण का प्रयास होने लगा। तंग आकर मुझे वहाॅ से नौकरी छोड़नी पड़ी लेकिन हर जगह, हर मोड़ पर मुझे लाचार, मजबूर, बेवश की नजरों से देखने वाले भेड़िये मिले।


नये आॅफिस में अच्छी दोस्त बनी मधु मेरे साथ ये सब देखकर बहुत परेशान रहती थी। एक दिन वह मुझे दिल्ली के रेडलाइट एरिया ले आई और बोली उन भेड़ियों से चिथने से अच्छा है कि तुम यहाॅ रहकर अपनी जिन्दगी जियो और अपने भाई-बहिन का अच्छे से भविष्य संवार समाज के मुॅह पर करारा तमाचा मारो।


मुझे भी मंजू की बात सही लगी और यही रहने का फैसला किया क्योंकि आॅफिस ऐसे दरिंदे थे जिन्होनें मेरी देह को मार दिया। मेरे मस्तिष्क को अपाहिज कर दिया। मेरे स्वप्नों को दफना दिया। मेरे सुख को कुचल दिया। वजूद को तार-तार कर दिया फिर भी मेरे मन को कील नहीं सके वे। मैं भीतर ही भीतर और मजबूत होकर पनपती रही कि उठंूगी एक दिन। हार नहीं मानूगी.............इतनी आसानी से तो कतई नहीं।


समय गुजरता गया और जिन्दगी यूॅ ही आगे बढ़ती गई लेकिन मुझे खुशी है कि मैं अपनी बहिन और भाई की जिन्दगी संवारने में सफल रही। अपने माता-पिता का सपना सच कर सकी। मेरा भाई केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षक है पिछले 5 सितम्बर को वह सम्मानित भी हो चुका है और मेरी बहिन एम.बी.बी.एस. डाॅक्टर है।’’


वरदान और सरोज के बीच अब तक एक ऐसे नये रिश्ते की शुरूआत हो गई थी जिसमें वरदान को एक नई खाला और सरोज को एक अपना मिल गया था। जिससे वह अपने दुःख दर्द, खुशियां बाॅट सकती थी । वरदान भी दिल्ली आता तो सरोज से मिले बिना नहीं जाता और सरोज भी उसके लिये तमाम उपहार लाती और खुद को एक अच्छी खाला साबित कर परिवारिक जिन्दगी में रिश्तों की अहमियत समझने की कोशिश करती ।

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