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..............आखिर अब और कितनी कैंडिल जलेंगी ?

आखिर अब और कितनी मोमबत्ती जलेंगी? कब तक कैंडिल की तरह इंसानियत पिघल पिघल कर अपने अस्तित्व से जूझती रहेगी? यह नन्हा सा लेकिन गम्भीर सवाल है जो सिसकता हुआ एक लम्बे अर्से से जबाव की तलाश में भटक रहा है। घटना घटती है, नींद टूटती है, मानवता और समाजसेवा के लोग घरों की देहरी लांघ देते है, और हाथों की अंगुलियां मोमबत्ती और तख्तियां थाम लेती है सभायें होती है, मार्च निकलते है, नारे लगते है, मंच पर अल्फाजों में आक्रोश झलक आता है, आरोपों का दौर चलता है, पत्र/पत्रिकाओं में बड़ी-बड़ी तस्वीरें छप जाती है, सोशल मीडिया पर हैश टैग की चिंगारी शोला बन इंसाफ की गुहार लगाती है और यह सब कुछ समय तक जिंदा रहने के बाद गुजरते वक्त की परछाई के साथ अतीत का हिस्सा बन जाता है। ढलते दिन के साथ मंजर कुछ दिनों खमोशी में तब्दील रहता है। ये सन्नाटा ज्यादा दिन तक अपनी सासें बरकार नहीं रख पाता और फिर किसी हैवान की हैवानियत जाग जाती है।  समाज के तथाकथित जिम्मेदार फिर सभ्य समाज की दुहाई देने लगते है। फिर से कैंडिलें रोशन हो जाती हैं। मशालें जल उठती हैं। इंसाफें की आवाजें बुलन्द हो जाती और आखिरकार फिर माहौल शांत हो जाता है इसी तरह समय-समय पर इसकी पुनरावृत्ति होती रहती है। मौजूदा हालातों में यह एक रिवाज बनकर रह गया। न जाने कितनी निर्भया इन दारिदों की शिकार हो गई ? न जाने कितनी दामनी अपना बचपन खो बैठी होगी ? लेकिन परिणाम एकदम विपरीत आ रहे है। सूत्रों से मिले आंकड़ों पर नजर डाले तो दिलों-दिमाग सोचने पर विवश हो जायेगी और जहन में इसी बात की अनूभूति होने लगेगी कि इंसान से बेहतर तो जानवर है जो कम से कम वफादार तो होते है। प्रतिदिन 60 घटनायें बलात्कार की होती है। साल 2014 में अठ्ठाईस हजार सात सौ छप्पन बलात्कार की घटनाओं हुई थी जो साल 2016 में घटकर छब्बीस हजार छः सौ चार 26604 हो गई थी लेकिन दुर्भाग्यवश यह आंकड़ा घटने की वजाय वृद्धि करते हुये अठ्ठाईस हजार नौ सौ सैंतालीस पहुॅच गई।
गतिमान समय जैसे -जैसे आगे बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे ही इंसानियत हासिये पर आती जा रही है और हैवानियत दिन-दूगनी, रात चौगनी तरक्की करती जा रही है। अपराध होते है, मोमबत्तियां जलती है और मोमबत्ती पिघलने तक सभ्य होने का चोला ओढ़े जिम्मेदार चौराहों, स्मारकों पर दिखाई देते है। मोमबत्ती बुझ जाती है और उस अन्धेरे में फिर एक नया अपराध जन्म ले लेता है और मोमबत्ती जल उठती है।सिलसिला निरन्तर चलता आ रहा है।
मानव इस हद तक गिर चुका है कि उनसे बेहतर तो जानवर प्रतीत होने लगे है। दिल रोने लगता है और शर्म आने लगती है जब हैवानियत की घटनाओं से ओत-प्रोत समाचार प्रायः पत्र/पत्रिकाओं में देखने को मिल जाते है। छोटे-छोटे मासूमों की जिन्दगी से खेल अपनी हवस की भूख शांत करना। कभी 8 साल की बच्ची से रेप तो कभी 12 साल की बच्ची से बलात्कार। आखिर हमारा समाज जहॉ कहॉ रहा है ? क्या यही है 21 वीं सदी के नये भारत के नये समाज का चेहरा ? क्या यही है सामाजिक विकास, जिसकी बातें बड़े-बड़े लोग बड़े-बड़ें मंचों से करते दिखते है। विचार कीजिए अपने लिये न सही,  अपनों के लिये, अपनी आने वाली पीढ़ी के लिये क्योंकि आप भी इसी जालिम समाज का हिस्सा है। समाज चरित्र, नैतिकता और अनुशासन से कोसों दूर भागता जा रहा है। इंसान शब्द स्वंय में शर्मसार होने लगा है सिर्फ इतना ही नहीं मॉ की ममता तक की सरेआम हत्या हो रही है हाल ही में एक ऐसी घटना जालौन के भदेवरा गॉव में देखने को मिली जहां एक कलयुगी बेटे ने शराब के लिये रूपये न देने पर मॉ को फांसी पर लटका दिया और इसी दरम्यान बचाने आये चाचा पर भी कुल्हाड़ी से वार कर दिया। मानवता हनन के तरफ अपने कदम तेजी से बढ़ाती जा रही है। बेटियों की बलि चढ़ती जा रही है। अपराध अपना राज कायम करता जा रहा है और इन सब के लिये कहीं न कहीं हम, आप और ये समाज जिम्मेदार है यदि वक्त रहते नहीं सम्भले तो हालात सुधारने मुश्किल ही नहीं नमुमकिन हो जायेंगे।

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