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सर्वोच्चवाद के कारण टीआरपी का विष पी मर गई मीडिया?



आजादी के जश्न मनाकर सुबह जागे भारत ने शायद ही कल्पना की होगी कि ऐसा भी कुछ होगा जो 16 अगस्त की तारीख को खास बनाते हुए इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में अपना वजूद अंकित करा लेगी। 16 अगस्त के दिन जो भी हुआ उसने एक ओर दिलों-दिमाग को गमगीन कर दिया क्योंकि देश का एक बेशकीमती हीरा हम सभी से बिछड़ गया । न सिर्फ राजनीति बल्कि साहित्य जगत का सूरज हमेशा हमेशा के लिए अस्त हो गया बल्कि संवेदनात्मक राजनीति के एक युग का अंत हो गया। लेकिन देश के चमकते सितारे आदरणीय बाजपेयी के निधन पर मीडिया के तमाशे ने जहन को झकझोर कर रख दिया। हालांकि क्रियायें प्रतिक्रियायें साफ इशारे कर रहे थे लेकिन देश के इस माहौल में मीडिया को संयम और धैर्य नहीं खोना चाहिए था। ठीक है मान लिया कि मौजूदा दौर व्यापारिक है लेकिन कहा जाता है कि मीडिया समाज का दर्पण है।

आज उस वक्त समाज के इस दर्पण पर बाजारवाद और टीआरपी की धूल चढ़ गई जब बिना किसी अधिकारिक घोषणा के  कई चैनलों द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के निधन होने की खबर का प्रसारण कर दिया गया हालांकि वक्त रहते सबने भूलसुधार करते हुए खुद को संभाल लिया लेकिन जब तक यह खबर जंगल में लगे आग की तरह फैल गई। एक ओर उनकी हालात नाजुक होने की खबर आ रही थी तो दूसरी ओर भारत रत्न बाजपेयी जी के बिछुड़ जाने की। मानो तो ऐसा लग रहा था कि दोनों खबरें जनता की भावनाओं से खेलने के साथ-साथ गुमराह करने का काम रही हो और लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ धराशायी हो गया।

श्रद्धेय अटलजी अपनी कार्यशैली के कारण भारत की जनता से संवेदनात्मक रूप से जुड़े थे इस वजह से हर कोई उनका हाल-चाल जानने के लिए मीडिया पर अपनी नजर बनाए हुए था लेकिन मीडिया के द्विअर्थी रूख से पत्रकारिता की विश्वसनीयता को तो चोट पहुंची ही है साथ ही ऐसी अनूभूति हो रही थी कि बाजारबाद और सर्वोच्चवाद के कारण टीआरपी रूपी विष को धारण कर मीडिया मर गई।