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लापता हो गए ‘‘पारस’’ पंख


जी हां लापता हो गए पारस पंख, पढ़कर कितना अचम्भा सा लग रहा है लेकिन समय की परखनली से अतीत और वर्तमान का जब एक साथ परीक्षण किया जाए तो यही परिणाम आएगा कि साहित्य पटल पर तेजी से अपने कदम बढ़ाने वाले पारस पंख गुमषुदा हो गए।

कितना हास्यपद लग रहा कि खुद ही खुद के लापता होने की बात लिख रहे है। लेकिन भइया सच सच होता है। कागज की कोमल जिगर पर कलम की पैनी नोंक से संवेदनाओं को उकेरने वाले पारस पंख तरक्की और सपनों की दुनिया में पिछले एक साल से गुमनाम से हो गए । बताते चले कि पारसमणि अग्रवाल साहित्य की दुनिया में पारस पंख के नाम से अपनी संवेदनाओं का प्रवाह करते है। छोटी सी उम्र में ही बड़े मंचों को हासिल करने वाले पारस पिछले एक साल साहित्यिक मंचों से गायब नजर आ रहे ऐसे में यह सूचना लिखना बहुत ही लाजमी है कि लापता हो गए पारस ’’पंख’’ं। अब सिर्फ यदि साहित्यिक पटल पर अपने होने की अनूभूति कराते है तो है वो पारसमणि अग्रवाल न कि पारस पंख

जनपद को छोड़ तरक्की व सपनों को सच रूप देने में जुटे पारस मौजूदा समय में सूबे की राजधानी में रह रहे है। षिक्षा के लिए पलायन करने वाले पारस मंजिल को हासिल करने के लिए न सिर्फ घर जनपद छोड़ आए है बल्कि ऐसी बहुत सी गतिविधियों से दूर हो गए है जो पारस को पारस होने का अहसास कराती है इसे अब वक्त की मार कहा जाए या फिर कुछ पाने के लिए कुछ खोना यह कहना तो बेहद जटिल होगा। हा बस इतना जरूर कहा जा सकता है कि ख्वाहिषों की दुनिया में विलीन हो गए पारस पंख। 

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