Ticker

12/recent/ticker-posts

लोक संस्कृति की जड़ों में मठ्ठा डाल रहा आधुनिक बाजार

इस बात पर कतई शंका नहीं है कि भारतीय संस्कृति सभ्यता को संजीवनी प्रदान करने का काम लोक परम्पराएं करती है। लेकिन इसे दुर्भाग्य कहा जाए या मौजूदा हालातों की विडंबना कि लोकसंस्कृति की जड़ों में मठ्ठा डालने का काम बाजार ने संभाल लिया।
लोकपरम्पराओं की पहली ही सीख होती है कि बुरे को बुरा औऱ भले को भला कहो यानि कि सच्चाई की राह चुनो सिर्फ इतना ही नहीं लोकपरंपराओं ने इस किदवंती "बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला" के साथ बुराई का मुंह काला करने तक को कह दिया। लेकिन ठीक इसके विपरीत बाजार ने लोकपरंपराओं के साथ तू डाल डाल मै पात पात का खेल खेलकर झूठ को अपना पर्याप्य बना लिया। साथ ही बाजार ने गलत को सही असली को नकली भी झुठे को सच्चा सच्चे को झूठा साबित करने का अहम बीड़ा उठाया। सच कहा जाए तो यह कहना बिल्कुल भी अन्याय संगत नहीं हो गया कि झूठ के बिना व्यापार की कल्पना आसमान से ताड़े तोड़ने जैसा हो गया। अब झूठ का मुंह काला नहीं होता बल्कि सच ही कालिख की चपेट में आ जाता और दाल में काला नहीं दाल ही काली हो जाती है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ