जिंदगी उथल-पुथल सी हो गई हो और उस मदहोशी के नशे से बाहर आने की लाख कोशिश भी उस वक्त चिढ़ा के चली जाती है जब समय खराब चल रहा हो शायद अब यही आरोप लगने को बचा था...जो दिल को झकझोर जाता है खुद को सोचने पर विवश कर देती है और मजबूर कर देती है मानसिक पीड़ा झेलने को। बार बार यही सवाल दिलों दिमाग में उफान ला रहा कि कभी लड़कों तक से तेज आवाज में बात न करने वाला इंसान क्या वास्तव में इतना मजबूर हो जाता है कि उसे सामूहिक बसेरे के पीछे से हूटिंग करनी पड़ रही है।
जी हाँ, पोस्ट पढ़के ताज्जुब आपको भी हो रहा होगा होगा ही क्योंकि मुझे भी समझ नहीं आ रहा कि अपनी पीड़ा को शब्दों के पैमाने में कैसे बाँधू? क्योंकि शायद अभी तक साफ दामन पर अब एक छींटा सा पड़ गया है। घटना सत्य है लेकिन मौके से गुजरना शायद मेरे लिए गुनाह बन गया। खैर जो हुआ ठीक हुआ हर एक घटना कुछ न कुछ सबक देके जाती है। लेकिन मैं एक बात जरूर स्प्ष्ट कर दूं कि गर्ल्स बसेरे के पीछे जाकर चिल्लाना पड़े ऐसी स्थितिया न मेरे साथ आई और न ही आये अगर ऐसे हालात आये भी तो इनसब के पहले इस दुनिया को अलविदा कहना उचित समझूँगा क्योंकि हमारे संस्कार और हमारे गुरुओं की शिक्षा ऐसी नही है।
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