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लड़के ही कसूरवार होते साहब, लड़कियां तो मासूम होती......


कहीं पढ़ा था कि लड़की जब तक गुनाहगार नहीं होती जब तक वह आरोपी साबित नहीं हो जाता और लड़के तब तक दोषी होते जब तक निर्दोष साबित नहीं हो जाते। पढ़ने में ये लाइनें जितनी गहराई से दिल को छू जा रही उतनी ही मजबूती के साथ यही पक्तियां हमारी मानसिकता और हमारी व्यवस्था की बखेड़िया उधेर रही है क्योंकि हम बात तो करते है समानता की, हम बात तो करते है एक हाथ से ताली न बजने की, हम बात तो करते है बुद्धजीवि होने की, हम बात तो करते है निष्पक्ष न्याय की जब बात आती है अमल में आने की तो भूल जाती है हमारी व्यवस्था, पा्रप्त मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 14 एवं 15 को, क्योंकि लड़के ही कसूरवार होते साहब, लड़कियां तो मासूम होती।

अनुच्छेद 14 एवं 15 क्रमशः स्पष्ट बताता है कि विधि के समझ समानता एवं धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा जो न्यायालय में वाद योग्य भी है। लेकिन शायद हमारा समाज, हमारी व्यवस्थायें दोहरे रास्तों पर कदमताल कर रही है जो खुद में ही मजाक बन रही है। 

लड़के ही कसूरवार होते, लड़कियां तो भोली होती यह बात जितनी हास्यपद है इसका प्रमाण उतना ही सटीक। तभी तो अक्सर समाचार पत्रों में छपने वाली खबरें खुद वा खुद इसकी सच्चाई बयां कर देती है। आजतक किसी भी समाचार पत्र/पत्रिकाओं में यह पढ़ने को नहीं मिला कि  कोई लड़की मासूम से लड़के को बहला फुसलाकर भगा ले गई। लेकिन ये खबर बड़ी आसानी से सुनने को मिल जाएगी कि युवक हुआ मासूम युवती को लेकर नौ दो ग्यारह।

सुना तो था कि पॉचों अगुलियां एक सी नहीं होती तो फिर ये कैसे हो सकता कि सामने आई इतनी घटनाओं में कोई लड़का मासूम न हो। क्या सारी लड़कियां ही मासूम होती? चलो यकीन कर लेते है कि लड़कियां मासूम होती और लड़के ही कसूरवार होते। लेकिन यह सवाल इस बात को निगलने नहीं देता और गले की फांस सा चुभता है कि जब लड़कियां मासूम होती है तो दहेज उत्पीड़न/नारी उत्पीड़न के अधिकतर मामलों में कसूरवार सास और नन्द भी तो महिलाए होती तो ये कैसी मासूमियत कि एक महिला होते हुए भी एक महिला पर अत्याचारों का खंजर चला दिया जाता है, कभी उसे अग्निस्नान करा दिया जाता है तो कभी उसे बेघर कर दिया जाता है।

साहब..ताली एक हाथ से नहीं बजती तो फिर समझौता एक तरफा क्यों? सजा एक तरफा क्यों ? एक को उसके परिजनों के हवाले सौंप दिया जाता तो दूसरे को हवालात के हवाले ये कैसी परम्परा? कहां चले जाते है इस वक्त समानता की बात करने वाले? कहॉ गुमनाम हो जाते है निष्पक्ष न्याय की बात करने वाले। सोचकर देखिए कितना हास्यपद लगता है कि घर से लेकर देश तक चलाने वाली 21 वीं सदी की महिला आज भी इतनी भोली है कि वह बहला-फुसलाकर किसी के साथ भी चलने को तैयार हो जाती है। मेरे लिए भी महिला उतनी ही सम्मानीय है जितनी आपके लिए .. लेकिन साहब जब बात समानता की कर रहे तो उसे अमल में भी तो लाइये।

photo- google se