माँ दीप सी जलती रही
चूल्हा चौका पति और बच्चे
दिन रात ही वो खटती रही
हम मनाते रहे दीवाली
माँ दीप सी जलती रही
रही बिखेरती ममता का आलोक
भूल सारे अपने दर्द और शोक
ढांप आँचल से नन्हीं सी लौ वो
तिमिर हालातों के हरती रही
हम मनाते रहे दीवाली
माँ दीप सी जलती रही
करके गठजोड़ औलादों का
खुद टूटकर माँ घटती रही
कलह द्वन्द करते रहे हम
वो वस्त्र शांति के सिलती रही
हम मनाते रहे दीवाली
माँ दीप सी जलती रही
बंट गयी साथ वो घर के
उन संतानों की रहमत से
छोड़ दिया मांझे ने साथ
कटी पतंग सी गिरती रही
हम मनाते रहे दीवाली
माँ दीप सी जलती रही
बोली न शब्द कटु फिर भी
मोती नैन सीप धरती रही
कौन आस बची मन उसके?
भावों से भाव गुंथती रही
हम मनाते रहे दीवाली
माँ दीप सी जलती रही
रावण और उसके सिर
दिखता तो है एक
मगर उस एक सिर में ही
समाहित हैं दस सर
जो न जाने कबसे ,कितनी ही
सीताओं को हरते आये हैं
कितनी ही विवश मंदोदरियां
अपनी सौतनों और पुत्रों की लाशों का
स्वागत करती आई हैं
पर कोई दस सिर वाले इन पुरुषों से
व्यवस्था और सामंजस्यता तो सीखे
जो वाकई काबिले तारीफ़ है
एक सिर जब किसी सीता को ताक रहा होता है
तब तक दूसरा सिर उसका
अपहरण करने की योजना बना लेता है
तीसरा सिर कामयाब न होने की दशा में
एसिड अटेक की रूपरेखा तैयार कर रहा होता है
चौथा अपनी पत्नी को दासी की तरह
प्रताड़ित करने में मग्न होता है तो
पांचवां अपनी अजन्मी पुत्री को गर्भ में ही
मरवाने पर विचार कर रहा होता है ,
छठा सिर अपनी बहन को लताड़ने और उसे
विवाह में दिए जाने वाले तोहफों से
मन ही मन कुढ़ रहा होता है ,
सातवाँ मजहवी कट्टरपंथी सिर
धार्मिक असहिष्णुता की कूटनीति रचता है
आठवाँ मौके का फायदा उठा
वोट बेंक की राजनीति करता है
नवां ,आठवें का पिछलग्गू बन
देश में भ्रष्टाचार फैलाता है
और दसवां हाथ में कैमरा और माइक संभाले
इन रावणों को राम और राम को रावण
सावित करने की जुगत में लगा रहता है
लंका में आग लगाने के लिए तो हनुमान जरूरी थे
मगर हमारे देश में आग लगाने के लिए अदद
एक पुरुष और उसके खुरापाती दस सिर ही काफी हैं
शायद इसलिए ही तो हमारा देश जल रहा है
धूं-धूं करके जल रहा है
रोये इस कदर
रोये इस कदर कि
संग कायनात रोये
हर कली हर गुल के साथ
बाग़ - ए बहार रोये
पाखर रोये ,नदिया रोये
साथ समुन्दर सात भी रोये
किसको अच्छी लागे विरह
कौन सह सके दिल के बिछोहे
दिल का दर्द तो जाने वो ही
जो अपने दिलवर को खोए
पतझड़ जीवन ,मरघट दुनिया
आदमी जिन्दा लाश सा होए
दिल का दर्द तो जाने वो ही
जो अपने दिलबर को खोए
दिल की किताब
दिल की किताब के पन्ने
कई बार पलट के देखे
पहला भी पन्ना खाली
और आखिरी भी खाली
कहने को है सभी कुछ
पास अपने जरूरत का
कल दिल प्यार का था प्यासा
और है आज भी सवाली
चिंतित सब हैं मेरी खातिर
शुभचिंतक इतने मिले
कल रिश्तों की थी गागर खाली
जिसमे है आज भी कंगाली
पतझड़ ही पतझड़ अब तो
उम्र का और ख्वाइशों का
वन हूँ मैं निर्जन सा कोई
कल भी सूना सूना था
न आज भी हरियाली
हर शय खाली – खाली
सपना मांगलिक
शिक्षा-एम्.ए ,बी .एड (डिप्लोमा एक्सपोर्ट मेनेजमेंट )
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